(मध्यप्रदेश में टसर क्रांति)
टसर कृमि-पालकों ने प्रति व्यक्ति औसत 25 हजार रुपये की आय हासिल कर रचा नया इतिहास
Bhopal:Saturday, November 12, 2011
मध्यप्रदेश अपराम्परागत टसर उत्पादन के क्षेत्र में शुरूआत के सिर्फ एक साल में ही देश के प्रमुख राज्यों झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा एवं आन्ध्रप्रदेश के साथ अग्रणी कतार में शामिल हो गया है। प्रदेश में अपरम्परागत टसर उत्पादन की शुरूआत के पहले वर्ष में उल्लेखनीय परिणाम सामने आये हैं। वर्ष
2010-11 में राज्य में 150 लाख कोकून उत्पादन के लक्ष्य के बदले 192 लाख टसर कोकून का उत्पादन हितग्राहियों ने किया है। प्रदेश में इस अवधि में 5 हजार हेक्टर वन क्षेत्र में कृमि-पालन के लक्ष्य के बदले 9,600 हेक्टर वन क्षेत्र में टसर कीट-पालन का कार्य हुआ है। इस अवधि में 5,600 हितग्राही टसर उत्पादन कार्य से लाभान्वित हुए हैं। नरसिंहपुर जिले के ज्योतेश्वर ग्राम के टसर कृमि-पालकों ने प्रति व्यक्ति औसत 25 हजार रुपये की आय हासिल कर राज्य में नया इतिहास रचा है। उम्मीद है मौजूदा वित्तीय वर्ष में राज्य के करीब 20 हजार से अधिक हितग्राही टसर उत्पादन कार्य से लाभान्वित होंगे। टसर कृमि-पालन और कोकून उत्पादन के बाद कोकून से धागा बनाने के काम से भी अब प्रदेश में स्थानीय लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार हासिल होगा।
टसर एक प्रकार का रेशम है तथा आमतौर पर हम जिस रेशम को जानते हैं वह शहतूत की पत्ती खाने वाले रेशम के कीड़े से बनता है। इस रेशम का उत्पादन हितग्राहियों द्वारा शहतूत की पत्ती का उत्पादन कर तथा अपने घरों में रेशम के कीड़े पाल कर किया जाता है। जबकि टसर रेशम का कीड़ा मुख्य रूप से जंगलों में पाये जाने वाले अर्जुन एवं साजा पत्तियों को खाता है और इन पेड़ों पर ही कोकून का निर्माण करता है। इसके द्वारा उत्पादित रेशम को टसर रेशम या वन्या रेशम कहा जाता है।
पहले अविभाजित मध्यप्रदेश टसर रेशम उत्पादन के क्षेत्र में देश के प्रमुख राज्यों में जाना जाता था, परंतु राज्य विभाजन के पश्चात टसर रेशम उत्पादन करने वाले अधिकतर वन क्षेत्र नव-गठित छत्तीसगढ़ राज्य में चले गये और
मध्यप्रदेश अपराम्परागत टसर उत्पादन के क्षेत्र में शुरूआत के सिर्फ एक साल में ही देश के प्रमुख राज्यों झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा एवं आन्ध्रप्रदेश के साथ अग्रणी कतार में शामिल हो गया है। प्रदेश में अपरम्परागत टसर उत्पादन की शुरूआत के पहले वर्ष में उल्लेखनीय परिणाम सामने आये हैं। वर्ष
2010-11 में राज्य में 150 लाख कोकून उत्पादन के लक्ष्य के बदले 192 लाख टसर कोकून का उत्पादन हितग्राहियों ने किया है। प्रदेश में इस अवधि में 5 हजार हेक्टर वन क्षेत्र में कृमि-पालन के लक्ष्य के बदले 9,600 हेक्टर वन क्षेत्र में टसर कीट-पालन का कार्य हुआ है। इस अवधि में 5,600 हितग्राही टसर उत्पादन कार्य से लाभान्वित हुए हैं। नरसिंहपुर जिले के ज्योतेश्वर ग्राम के टसर कृमि-पालकों ने प्रति व्यक्ति औसत 25 हजार रुपये की आय हासिल कर राज्य में नया इतिहास रचा है। उम्मीद है मौजूदा वित्तीय वर्ष में राज्य के करीब 20 हजार से अधिक हितग्राही टसर उत्पादन कार्य से लाभान्वित होंगे। टसर कृमि-पालन और कोकून उत्पादन के बाद कोकून से धागा बनाने के काम से भी अब प्रदेश में स्थानीय लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार हासिल होगा।
टसर एक प्रकार का रेशम है तथा आमतौर पर हम जिस रेशम को जानते हैं वह शहतूत की पत्ती खाने वाले रेशम के कीड़े से बनता है। इस रेशम का उत्पादन हितग्राहियों द्वारा शहतूत की पत्ती का उत्पादन कर तथा अपने घरों में रेशम के कीड़े पाल कर किया जाता है। जबकि टसर रेशम का कीड़ा मुख्य रूप से जंगलों में पाये जाने वाले अर्जुन एवं साजा पत्तियों को खाता है और इन पेड़ों पर ही कोकून का निर्माण करता है। इसके द्वारा उत्पादित रेशम को टसर रेशम या वन्या रेशम कहा जाता है।
पहले अविभाजित मध्यप्रदेश टसर रेशम उत्पादन के क्षेत्र में देश के प्रमुख राज्यों में जाना जाता था, परंतु राज्य विभाजन के पश्चात टसर रेशम उत्पादन करने वाले अधिकतर वन क्षेत्र नव-गठित छत्तीसगढ़ राज्य में चले गये और
वर्तमान मध्यप्रदेश में टसर रेशम का उत्पादन लगभग नगण्य रह गया। चूँकि मध्यप्रदेश के वन क्षेत्रों में साजा एवं अर्जुन के पर्याप्त वृक्ष उपलब्ध हैं, अतः वन विभाग और रेशम संचालनालय ने संयुक्त अभियान चलाकर प्रदेश में ऐसे वन क्षेत्रों का चयन किया है, जहाँ टसर कीट का पालन सफलतापूर्वक किया जा सके।
राज्य के लगभग 30 जिले ऐसे हैं जहाँ पर जंगलों में अर्जुन और साजा वृक्षों की बहुलता की वजह से अब टसर कीट-पालन का कार्य शुरू किया जा रहा है। इससे इन जिलों के वन क्षेत्रों तथा उनके आसपास रहने वाले वन श्रमिकों को टसर उत्पादन से अतिरिक्त आमदनी हो सकेगी। राज्य सरकार ने इस महती योजना को अपने 70 सूत्रीय संकल्प में शामिल किया है।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद टसर उत्पादन वाले वन क्षेत्र तो चले ही गये। इसके साथ ही टसर रेशम कृमि-पालन का परम्परागत ज्ञान भी चला गया। मध्यप्रदेश के नवीन चयनित क्षेत्रों के ग्रामीणों और वन श्रमिकों को न तो टसर कृमि-पालन का कोई ज्ञान था न ही इसका कोई अनुभव।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद टसर उत्पादन वाले वन क्षेत्र तो चले ही गये। इसके साथ ही टसर रेशम कृमि-पालन का परम्परागत ज्ञान भी चला गया। मध्यप्रदेश के नवीन चयनित क्षेत्रों के ग्रामीणों और वन श्रमिकों को न तो टसर कृमि-पालन का कोई ज्ञान था न ही इसका कोई अनुभव।
रेशम संचालनालय द्वारा टसर उत्पादन के लिये चलाए गए अभियान के दौरान वन सुरक्षा समितियों के माध्यम से हितग्राहियों का चयन किया गया। इन हितग्राहियों को टसर कृमि-पालन का तकनीकी प्रशिक्षण भी देने का वृहद कार्यक्रम शुरू किया गया। इन हितग्राहियों को टसर कृमि-पालन के तकनीकी और व्यावहारिक पहलुओं की जानकारी देकर प्रशिक्षित किया गया है।
यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि मध्यप्रदेश में पहली बार टसर कृमि-पालन की शुरूआत ऐसे वन क्षेत्रों में हुई है, जहाँ पहले कभी भी इन्हें पाला नहीं गया था। इसके अलावा ऐसे ग्रामीण हितग्राहियों द्वारा अब यहाँ कृमि-पालन का कार्य किया जा रहा है, जिन्हें पहले इसका कोई अनुभव नहीं था।
एक वर्ष में टसर कीट की मुख्यतः दो फसल ली जाती हैं। पहली फसल 35 से 40 दिन की होती है, जबकि दूसरी फसल 40 से 45 दिन की होती है। पहली फसल वर्षा ऋतु के प्रारंभ के साथ होती है। प्रशिक्षित हितग्राहियों को एक-एक हेक्टर वन प्रक्षेत्र कृमि-पालन के लिये दिया जाता है। रेशम संचालनालय द्वारा टसर कृमि के अण्डों से प्राप्त टसर-कृमि इन हितग्राहियों को दिये जाते हैं।
एक वर्ष में टसर कीट की मुख्यतः दो फसल ली जाती हैं। पहली फसल 35 से 40 दिन की होती है, जबकि दूसरी फसल 40 से 45 दिन की होती है। पहली फसल वर्षा ऋतु के प्रारंभ के साथ होती है। प्रशिक्षित हितग्राहियों को एक-एक हेक्टर वन प्रक्षेत्र कृमि-पालन के लिये दिया जाता है। रेशम संचालनालय द्वारा टसर कृमि के अण्डों से प्राप्त टसर-कृमि इन हितग्राहियों को दिये जाते हैं।
ये हितग्राही जंगलों में अर्जुन और साजा के वृक्षों पर टसर-कृमि पहुँचाते हैं और उनकी सुरक्षा भी करते हैं तथा यह बेहद कठिन और श्रम-साध्य कार्य है। कोकून संग्रहण के बाद ग्रामोद्योग विभाग द्वारा निर्धारित गुणवत्ता आधारित दरों पर कोकून की खरीदी की जाती है।
मध्यप्रदेश में टसर उत्पादन के पहले वर्ष 2010-11 की अवधि में प्रदेश के होशंगाबाद जिले में 46 लाख कोकून, बालाघाट जिले में 38.11 लाख कोकून, मण्डला में 26.20 लाख कोकून, बैतूल जिले में 21 लाख कोकून, नरसिंहपुर जिले में 18.80 लाख कोकून, सीहोर जिले में 6 लाख कोकून और हरदा जिले में 3.34 लाख कोकून का उत्पादन हुआ है। यहाँ हितग्राहियों को प्रथम वर्ष में एक फसल से औसतन 4 से 5 हजार रुपये की आय हुई है। प्रथम वर्ष के आधार पर यह आय बेहद उत्साहजनक है।
टसर कृमि-पालन और कोकून उत्पादन के बाद कोकून से धागा बनाने के काम से भी अब प्रदेश में स्थानीय लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार हासिल होगा।
मध्यप्रदेश में टसर उत्पादन के पहले वर्ष 2010-11 की अवधि में प्रदेश के होशंगाबाद जिले में 46 लाख कोकून, बालाघाट जिले में 38.11 लाख कोकून, मण्डला में 26.20 लाख कोकून, बैतूल जिले में 21 लाख कोकून, नरसिंहपुर जिले में 18.80 लाख कोकून, सीहोर जिले में 6 लाख कोकून और हरदा जिले में 3.34 लाख कोकून का उत्पादन हुआ है। यहाँ हितग्राहियों को प्रथम वर्ष में एक फसल से औसतन 4 से 5 हजार रुपये की आय हुई है। प्रथम वर्ष के आधार पर यह आय बेहद उत्साहजनक है।
टसर कृमि-पालन और कोकून उत्पादन के बाद कोकून से धागा बनाने के काम से भी अब प्रदेश में स्थानीय लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार हासिल होगा।
टसर कोसा का धागा बनाने वाली मशीन बहुत कम कीमत की होती है। इसी वजह से पूरे प्रदेश में विकेन्द्रीकृत धागाकरण इकाइयों की स्थापना की जा सकती है। वर्तमान में राज्य में उत्पादित टसर कोकून से धागा बनाने वाली इकाइयों की क्षमता काफी कम है।
और इसी वजह से अधिकांश टसर कोकून राज्य से बाहर चला जाता है, जिस वजह से स्थानीय लोगों को धागा बनाने के काम से रोजगार नहीं मिल पाता। इसी मक़सद से रेशम संचालनालय द्वारा सम्पूर्ण प्रदेश के टसर उत्पादन वाले इलाकों में धागा बनाने वाली इकाइयों की स्थापना की शुरूआत की गई है।
पिछले एक साल में होशंगाबाद जिले के इटारसी के पास पथरोटा, नरसिंहपुर जिले के नरसिंहपुर और मुंगवानी, बालाघाट जिले के बालाघाट और वारासिवनी तथा मण्डला जिले के मण्डला और डिण्डोरी में धागाकरण इकाइयों की स्थापना होने के साथ वहाँ उत्पादन भी शुरू हो चुका है। इन धागा उत्पादन इकाइयों में शत-प्रतिशत महिलाएँ ही काम कर रही हैं। महिला उत्थान और महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भरता में यह टसर क्रांति महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
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